बेंगलूरु: (आर्यवर्त एक्सप्रेस)। आठ साल की माधवी (बदला हुआ नाम) को रोज़ाना कमाई का एक लक्ष्य दिया गया है। उसे रोज़ाना करीब आठ घंटे का काम करना पड़ता है। रोज़ की कमाई का लक्ष्य तकरीबन 800 से 1500 रुपये है। माधवी रोज़ सुबह 9 बजे से लेकर शाम के करीब 6 बजे तक इंदिरानगर केएफसी सिग्नल पर भीख मांगती है। जिस उम्र में उसकी नन्ही आँखों में पढ़ने और कुछ कर दिखाने के सपने होने चाहिए, आज उन्हीं नन्ही आँखों को ट्रैफिक सिग्नल के लाल होने का इंतज़ार रहता है। शहर के तमाम इलाकों में ऐसी न जाने कितनी ही माधवी होंगी जिनके सपनों को रौंद कर उन्हें शहर के ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगने पर मजबूर किया जाता है।
शहर में ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगती बच्ची, औरतें, ट्रांसजेंडर और बुजुर्ग आपको आसानी से नज़र आ जायेंगे। देश के अन्य शहरों की तुलना में बेंगलूरु में भीख मंगवाना इसलिए भी सहूलियत माना जाता है क्योंकि यहाँ के लोग अन्य शहरों की तुलना में भीख में अधिक पैसे देते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगे वाले बच्चे या कोई और अपना पेट पालने के लिए भीख नहीं मांगते बल्कि इनको भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है।
इनकी कमाई का इस्तेमाल इनकी भलाई या देश के काम में नहीं बल्कि देश की बर्बादी या देश के बाहर चलाये जाने वाले गोरख धंधे के लिए किया जाता है। भीख मांगने के अलावा ट्रैफिक सिग्नल पर आपने कई बार इन्हीं मासूम बच्चों, ट्रांसजेंडरों और बुजुर्गों को तरह तरह की वस्तुएं भी बेचते देखा होगा। तो आसान भाषा में हम ये कह सकते हैं कि आज बेंगलूरु में ट्रैफिक सिग्नलों पर दो तरह के लोग सिग्नल के लाल होने का इंतजार करते हैं।
एक वे जो पेन, पेंसिल, गुलदस्ता, टोकरी, मैट, टावल आदि सामान बेचते हैं, तो दूसरे अपनी लाचारी दिखा कर भीख मांगते हैं। आकाश बताते हैं कि ऑटो या बाइक लेकर किसी दिन सिग्नल पर रुक जाना तो जैसे किसी दुस्वप्न से कम नहीं होता। ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने और सामान बेचने वाले लोग लगातार आपको छू-छूकर परेशान करते रहते हैं। कई जवाब न दो तो गालियां और बद्दुआएं देते हैं। ये किसी प्रकार की प्रताड़ना नहीं तो और क्या है।
सोचने वाली बात यह है कि इन दोनों की कार्यों में लिप्त बच्चों, औरतों या बुजुर्गों को तस्करों की जाल से बाहर निकालने की दिशा में अब तक राज्य सरकार ने कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया? एक ओर जहां मेकिंग इंडिया और डिजिटल इंडिया की बात कह कर हम विकसित देश बनने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो वहीं दूसरी ओर मानव तस्करी, गोरख धंधा और घोटालों की वजह से दो कदम पीछे चले जाते हैं।
शहर के किसी एक सिग्लन पर ही भीख मांगने वाले एक व्यक्ति से हमने बात की तो उन्होंने बताया कि ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने के लिए कई तरीके बताये जाते हैं। उन्हें ये सीखाया जाता है कि जब तक सिग्नल के ग्रीन होने के लिए व्यक्ति इंतजार कर रहा हो, उसे तब तक परेशान करते रहो जब तक कि वो तुम्हें पैसे न दे दे। इतना ही नहीं उसने यह भी बताया कि 10 रुपये से कम नहीं लेना है।
पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम गुप्त रखने के शर्त पर बताया कि शहर में कई बार ऐसे ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगते बच्चों और बुजुर्गों को माफियाओं के चुंगुल से बहार निकाला जा चुका है। लेकिन बात वहां आकर अटक जाती है, जहां दूसरे ही दिन यह सिलसिला फिर नए रुप में शुरू हो जाता है। उन्होंने नाम न बताने के शर्त पर बताया कि इस धंधे को बंद करने के लिए राज्य सरकार को तत्परता दिखानी होगी। सरकार खुद ही अगर इस मामले में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी तो इसका बंद होना नामुमकिन हैं। वे कहते है कि इस पर कोई ठोस आंकड़ा कभी तक तैयार नहीं किया जा सका है क्योंकि ये गोरख धंधा इस कदर पैर पसार चूका है कि अब इसे गिन पाना लगभग असंभव हो चुका है।
क्या कहते हैं आंकड़ें
एक अनुमान के तौर पर एक महीने में ट्रैफिक सिग्नलों में भीख की कमाई कम से कम पांच लाख रुपये के आस-पास होती है। इन रुपये का क्या होता होगा? किस काम में इस्तेमाल किया जाता होगा? यह अब भी एक प्रश्न है। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार देश भर में करीब 6 लाख से भी ज्यादा लोग रोज़ाना भीख मांगते हैं। वहीं अकेले बेंगलूरु शहर में भीख मांगने वालों की संख्या करीब 5 हज़ार से भी ज्यादा है। शहर में बच्चों की मनोचिकित्सा के लिए काम कर रही संस्था प्रगति की अध्यक्ष डॉ रुचि का कहना है कि हमारे यहाँ अक्सर ऐसे बच्चों को लाया जाता है जो किसी न किसी प्रकार से मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के शिकार हैं। उन्होंने बताया कि भीख मांगने वाले बच्चों को उनकी मानसिक स्थिति से निकालना बेहद मुश्किल होता है। क्योंकि बच्चों को अलग अलग किस्म की नशीली दवाएं दी जाती है जिसकी वजह से वे सामान्य बोध की क्षमता खो देते हैं।
कमाई के लिए बेंगलूरु बेहतर शहर
देश के अन्य शहरों की तुलना में बेंगलूरु को कई कारणों की वजह से बेहतर माना जाता है लेकिन भीख मांगने और इसकी कमाई के लिए भी जब शहर को श्रेष्ठ कहा जाता है। यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि यह शहर आईटी सिटी और सिलिकॉन वैली के लिए ही नहीं बल्कि सिग्नल पर भीख मांगने और गोरख धंधा करने के लिए भी प्रसिद्ध है। इसमें मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता के नाम भी शामिल हैं। बेंगलूरु शहर में ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने वाले बच्चों को बचाने एवं उन्हें एक अच्छी ज़िन्दगी प्रदान करने वाली गैर- सरकारी संगठन की अध्यक्ष रेणु का कहना है कि बेंगलूरु को भीख मांगने वालों के लिए अच्छा शहर इसीलिए भी माना जाता है क्योंकि यहाँ जब ट्रैफिक सिग्नल पर बच्चें भीख मांगते हैं तो देने वाले मनचाही राशि देते हैं। उन्होंने बताया कि यहाँ जितनी तादात में ट्रैफिक सिग्नल है उतनी ही तादात में बच्चों, ट्रांसजेंडर और बुजुर्गों से भीख मंगवाया जाता है। उन्होंने यह भी बताया कि समय-समय पर उनकी संस्था द्वारा ट्रैफिक सिग्नलों से बच्चों को पुनर्वास के लिए लाया जाता है।
रेणु कहती हैं कि तस्करी करने वाले लोग बच्चों को इस प्रकार तैयार करते हैं कि उनके मुँह से कुछ भी बुलवाना मुश्किल हो जाता है। वे कहती हैं कई बार हमारे यहाँ बच्चे आते है जिन्हें उनकी हालिया मानसिक अवस्था से निकालने में कई महीनों लग जाते हैं। रेणु ने बताया बच्चों के जरिये कमाया गया पैसा देश के बाहर असामाजिक तत्वों एवं आंतक को बढ़ावा देने में लगाया जाता है। उन्होंने बताया बच्चों को देश के विभिन्न राज्यों और शहरों से यहाँ लाया जाता है। इनमें मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, आंध्र-प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और बांग्लादेश शामिल हैं।
सोच से परे है यह धंधा
शहर में स्थित चाइल्ड वेलफेयर सोसाइटी, जहां भीख मांगे वाले बच्चों का पुनर्वास किया जाता है वहां के सदस्य कुमारन का कहना है कि संस्था द्वारा शहर के कई जगहों पर छापेमारी की गई और करीब 300 से भी ज्यादा बच्चों को इन माफियाओं के कैद से आज़ाद किया गया था। उस वक़्त धंधे से जुड़े सात लोगों को पुलिस ने हिरासत में लिया था। उनसे पूछताछ के दौरान पता चला कि यह घोटाला सोच से भी परे है। भीख मांगने के लिए जिन बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है उनका शारीरिक रूप से शोषण भी किया जाता है। उन्होंने बताया कि इन्हें ज्यादा दिनों तक एक जगह पर नहीं रखा जाता। समय-समय पर देश के अन्य शहरों में इनका रोटेशन चलता है। बच्चों की मानसिक स्थिति को इस प्रकार बनाया जाता है कि वे सिर्फ पैसे मांगने के सिवाए कुछ बताते भी नहीं है। उन्होंने बताया कि इस प्रकार से भीख मांगने के धंधे में खासतौर पर बच्चों को दोहरे रूप से इस्तेमाल किया जाता है। कईयों को देश के बहार जिस्मफ़रोशी के जाल में धकेल दिया जाता है।
सरकार क्यों हैं मौन ?
ट्रैफिक सिंग्नल पर खड़े होने वाले हर व्यक्ति के मन में कई सवाल है। जैसे, इन भीख मांगने वालों की अपनी कोई पहचान है भी या नहीं? इनको दिए जाने वाले पैसों का कोई हिसाब है भी की नहीं? एक दिन में मिले भीख के पैसों से क्या इनका खुद का घर चलता है? रोज़ाना सिग्नल पर भीख के रूप में मांगे जाने वाले और वस्तुओं व सामग्रियों को बेच कर कमाए जाने वाले पैसे जाते कहाँ हैं? आखिर इन कार्यों में लिप्त गिरोह को संरक्षण कौन दे रहा है? क्या यह पैसे राष्ट्र विरोधी कार्यों पर इस्तेमाल किया जा रहा है? भीख मांगने वाले लोगों को पैसों का लालच देकर क्या कोई भी आपराधिक कार्य करवाया जा सकता है? क्या इनका इस्तेमाल देश में भ्रष्टाचार और आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है? भीख में मिले पैसे कालेधन के सामान है, जिनका सरकारी कागजों में कोई लेखा-जोखा नहीं है, तो क्या इस प्रकार देश की अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो रही है? सरकार के पास क्या इन माफियों से लड़ने का कोई उपाय है? इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या इसमें राज्य सरकारों का ध्यान अब तक नहीं गया या सब जान कर भी राज्य सरकार और केंद्र सरकार मौन क्यों है?
टैक्स देने वाले देश में भीख क्यों?
कोरमंगला फोर्थ ब्लॉक के रहने वाले संदीप का कहना है कि हर महीने हज़ारों और सालाना लाखों रुपये टैक्स देने के बाद नौबत यह आती है कि ट्रैफिक सिग्नल पर भी पैसे देने पड़ते हैं। उन्होंने कहा कि राज्य या केंद्र सरकार के पास इन बेनामी पैसों का कोई हिसाब तक नहीं है। जबकि देश के हर छोटे-बड़े शहरों में ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने वालों और सामान बेचने वालों की तादात भरी हुई है।
उनका कहना है दो मिनट के लगभग हर सिग्नल पर ऐसे ही कम से कम पांच से सात लोग आकर गाड़ी के शीशे पर पीट रहे होते हैं। इनमें से कुछ लाचारी दिखा कर भीख मांगते हैं, तो कुछ पेन, पेंसिल और गुलदस्ता बेचते हैं। कुछ देर तक कोई जवाब न दो तो वे मन ही मन गालियां देकर चले जाते हैं। सरकार को इसके खिलाफ न केवल ठोस कदम उठाने चाहिए बल्कि इसके रोकथाम के लिए सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया जाना चाहिए।
कानून तो है पर कार्रवाई नहीं
बच्चों से भीख मंगवाना और बालश्रम के कार्यों में लिप्त करना कानूनी अपराध है। यदि बच्चों के अभिभावक उनसे भीख मंगवाते हैं तो उन्हें भी जेल की हवा खानी पड़ सकती है। सड़कों पर भीख मांग रहे बच्चों का पुनर्वास करना जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड का जिम्मा है। बोर्ड का चेयरमैन जिला आयुक्त होता है, जबकि बोर्ड में सदस्य भी होते हैं। कई राज्य़ों में पिछले कई वर्षो से बोर्ड का गठन ही नहीं हुआ। इसके अलावा देश भर में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है। इसके तहत चौदह वर्ष तक के बच्चे यदि भीख मांगते हैं तो इलाके के एसएचओ का जिम्मा है वे उन्हें स्कूल तक पहुंचाए। ऐसा हो नहीं रहा।
बिजनेस प्वाइंट बने
एक अनुमान के तौर पर शहर के फैलेने के साथ ही अब शहर में 500 से भ ज्यादा ट्रैफिक सिग्नल हैं। ट्रैफिक सिग्नल प्वाइंट की पहचान अब सामान बेचने और भीख मांगने वाले प्वाइंट के रूप में भी की जाती है। यहां तरह तरह के लोग छोटी-मोटी वस्तुओं को बेचने को लेकर खड़े रहते हैं। सड़क के किनारे खड़े ऐसे ही लोग सिग्नल रेड होते ही सक्रिय हो जाते हैं। फिर सामान लेकर गाड़ियों के पास पहुंच जाते हैं। कोई पेन बेच रहा है तो कोई मिट्टी के बर्तन। किसी ने हाथ में लड़ियां ले रखी होती हैं तो कोई टिशूपेपर। यह काम हर सिग्नल पर अब बढ़ता दिख रहा है। हर बड़े चौराहे पर यह बिजनेस फलने-फूलने लगा है। हो न हो पुलिस की मिलीभगत और सरकारी अनदेखी के चलते यह ट्रैफिक सिग्नल अब बिजनेस प्वाइंट बन चुके हैं।
भीख मांगने का है अपना कारपोरेट घराना
भीख मांगने वालों का अपना कारपोरेट घराना है। अगर आपने किसी दिन ये सुन लिया तो हैरान न हो जाएं कि सिग्नल पर जिस भिखारी को आपने संवेदना दिखाते हुए उस रोज 10 रुपये थमा दिए थे,उसके पास लाखों रुपए की संपत्ति है। आंकड़ें बातते हैं कि भिखारियों के सालाना दो सौ करोड़ के टर्नओवर पर है! भारत के संविधान में भीख मांगना अपराध है लेकिन बिहार में भीख मांगने का लाइसेंस मिलता है।
शहर के हर सिग्नल भिखारियों से घिरे पड़े हैं। देश में लगभग चार लाख भिखारियों में 45 हजार बच्चे हैं। भिखारियों के पैसे में पुलिस और सफेदपोशों के भी हिस्से होते हैं। देश में 40 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे किसी तरह जिंदगी की गाड़ी खींच रहे हैं। हर बड़े शहर के चौराहे भिखारियों से आबाद हैं। जितनी बार रेड सिग्नल, उतनी बार वाहनों के थमते ही फुर्ती से निकल आता है भिखारियों का झुंड। उनमें बड़े कम, बच्चे ज्यादा होते हैं। हाथ फैलाए आपकी ओर बढ़ आते हैं। एक दिन में सिग्नल पर हर ट्रिप के अगर दस रुपये भी कमा ले तो देर शाम तक उनकी झोली में कम से कम दो से तीन हजार रुपए आ जाते हैं। फिर रात के अंधेरे में वे ठाट से ऑटो कर घर पहुंच जाते हैं। ये है हमारे देश के लखपति, करोड़पति भिखारियों का डेली रुटीन। उनके बैंक बैलेंस कोई जाने तो पता चले ये धंधा कितना बड़ा है।
एक नज़र में
• ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगने वाले बच्चों की उम्र 6 से 15 वर्ष।
• शहर में ट्रैफिक सिग्नलों की संख्या लगभग 500 से ज्यादा।
• तस्कर बच्चों को बिहार, झारखण्ड, आंध्र-प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और बांग्लादेश से लाते हैं।
• अन्य शहरों की तुलना में यहाँ भीख में कम से कम मिलते है 10 रुपये।
• एक बच्चे को दिन में 8 से 10 घंटे भीख मांगने पर किया जाता है मजबूर।
• एक बच्चे की प्रतिदिन की कमाई करीब 500 से 800 रुपये।
• ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने वालों में शामिल हैं बच्चें, महिलाएं, ट्रांसजेंडर और बुजुर्ग।
• शहर में 5000 लोग रोज़ाना सिग्नल पर भीख मांगने पर मजबूर।
हैरान करते हैं आंकड़े
• देश के औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है।
• राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 44,000 बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं।
• लापता बच्चों में करीब 11,000 का ही पता लग पाता है
• यूएन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव तस्करी का बड़ा बाजार बन चुका है।
• देश भर से बच्चों और महिलाओं को लाकर ना केवल आसपास के इलाकों बल्कि विदेशों में भी भेजा जा रहा है।